बच्चो की समझ (लघु कहानी)

मानक

बच्चो की समझ (लघु कहानी)

बदलते शिक्षा के माहौल से कुछ बच्चे स्कूल सीडी लिए मेरे प्रतिष्ठान में बैठे थे | सीडी देखने की धुन बच्चो पर सवार थी | सी डी मैंने चालू किया हीं था फैक्स करने की आप धापी में कुछ लोग एक समय हीं आ गए मैंने इस कामो से फुर्सत लिया और बच्चो की इन सीडीयों को देखने लगा बच्चे स्कूल किताब की सीडी देखकर बहुत खुश नजर आ रहे थे | तभी एक बच्चा तपाक से बोला आज डैभोर्स देने वाले बहुत आ रहे हैं इतना सुनते हीं मेरी हंसी रुकने का नाम नही ले रही थी | मै उस बच्चे को देखा फिर बोला इस शब्द का मतलब जानती हो बच्चे ने मतलब भी बताया जब माँ पिता में झगड़ा हो तब कागज पर लिखकर भेज देते हैं | मुझे और भी हंसी आ गई मैंने बताया यहाँ क्या मैंने हाईकोर्ट खोल रखा है ? यह कागज मेरे पास क्यों आएगा यह केस मुकदमा लड़ने वाले जाने | मेरे पास तो पदाधिकारीयो के शिकायत के आवेदन आया करते है जो उनके महकमे तक मै भेज देता हूँ | मुझे उस बच्चे की समझ का तो पता चला घरेलू वातावरण ने किस कदर बाल मन को प्रदूषित कर रखा है अन्यथा इन शब्दों को समझने की समझाने की जरूरत नही पडती | शादी विवाह का मतलब अच्छा खानपान हीं समझते होंगे पर आजकल के बच्चे तलाक का मतलब भी बखूबी जानते हैं यह आधुनिक शिक्षा का परिवेश मै बच्चो के श्री मुख से सुनकर अवाक् रह गया | मेरी हंसी उस बच्चे को देखकर आज तीसरे दिन भी उसी तरह आ रही है मेरे भारत तुम धन्य हो जन जन को तलाक, आतंकवाद ,गोली ,बम, चोरी ,हत्या ,दुष्यकर्म जैसे घिनोने शब्दों को समझाने में जरा भी देर नही की | “ क्या लगता है एक घर बसाने में मन हीं मन मुस्कुराने में और तुमने एक जिन्दगी मिनटों में हलाल कर दी “ | बच्चो को जीवन का इतना सच पता है और मै आधुनिक भारत की शिक्षा पर कभी मिटा हीं नही |

रमेश अग्रवाल / रमेश यायावर

10 -05 – 2015

टिप्पणी करे